Zenab rehan

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ग्यारहवाँ अध्याय




देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिण:॥ 52 ॥

(तब), श्रीभगवान कहने लगे (कि आज) तुमने जो मेरा रूप देखा है इसका दर्शन अत्यंत दुर्लभ है। देवता लोग भी बराबर ही इस रूप के दर्शन की आकांक्षा रखते हैं। 52।

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥ 53 ॥

तुमने अभी-अभी मुझे जिस तरह देख लिया है इस रूप में मैं वेद, तप, दान और यज्ञ (किसी भी उपाय) से देखा नहीं जा सकता। 53।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च त त्त्वे न प्रवेष्टुं च परंतप॥ 54 ॥

हे अर्जुन, हे परंतप, किंतु अनन्य भक्ति से ही मुझे इस प्रकार जाना, आँखों देखा और उसी रूप में - वैसा ही स्वयं भी हो के - उसमें प्रवेश किया (भी) जा सकता है। 45।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।

निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पांडव॥55॥

(इसीलिए) हे पांडव, जो मेरे ही लिए - पदार्थ - कर्म करे, मुझी को अंतिम (लक्ष्य वस्तु) माने, मेरा ही भक्त हो, आसक्तिशून्य हो और किसी भी पदार्थ से बैर न रखे, वही मुझे प्राप्त करता है। 55।

यहाँ संक्षेप में ही दो-तीन बातें जान लेनी हैं।

पहली बात यह है कि यद्यपि 48वें तथा 53वें श्लोक में वेद आदि की बातें एक ही हैं, जिससे व्यर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है; फिर भी पहले श्लोक में अर्जुन को आश्वासन देने के ही लिए वह बातें कही गई हैं कि कहाँ तो वेदादि के बल से भी जो दर्शन नहीं हो सकता है वही तुझे मिला है और कहाँ तू उलटे घबराता और बेहोश होता है! यह क्या? राम, राम! लेकिन वही बात दूसरे श्लोक में अनन्य भक्ति के साथ वेदादि के मुकाबिले के लिए ही आई है; ताकि इस भक्ति का पूर्ण महत्त्व समझा जा सके।

दूसरी बात यह है कि यहाँ जो कई बार कहा है कि कभी किसी और ने यह रूप नहीं देखा, उसका मतलब यह है कि यह तो आत्मदर्शन का प्रयोग था जो अर्जुन के ही लिए किया गया था। इससे पहले यह प्रयोग किसी ने किया ही नहीं। अगर कभी किसी ने देखा भी हो तो कौतूहलवश ही। क्योंकि उसे यह दृष्टि कहाँ मिली और न मिलने पर वह इस दृष्टि से कैसे देखता? प्रयोग तो करता न था।

तीसरी बात है अंतिम श्लोक की। इसमें जो कुछ कहा गया है वह आत्मदर्शी की बात न हो के उधर अग्रसर होने वाले की ही है, जो अंत में सब कामों के फलस्वरूप आत्मदर्शन करके ब्रह्मरूप बनता है। प्रसंग और शब्दों से यही सिद्ध होता है।

इति श्री. विश्वरूपदर्शनं नामैकादशोऽ ध्या य:॥ 11 ॥

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका विश्वरूप दर्शन नामक ग्यारहवाँ अध्यापय यही है।




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